समेट के खवाबो को चंलना था ....उनके शहर को अलविदा करना था ....
सितारों ने भी रोकना चाह ...चाँद ने भी रुकने को कहा ....
वृक्ष भी सर झुका खड़े थे ..पत्थर भी आंसूं टपका रहे थे .....
सागर भी मोक्ष रख बता था ....
फिजा भी रुख मोढ़ कड़ी थी ....मंजिल भी दूर बड़ी थी ....
साडी कायनात मुझे रोकने में लगी थी ....
एक वो ही थी जो मुझे रोकने ना आये ....
माना था जिनको अपने वो भी हो गए थे पराये ....
अब ये गम ज़िन्दगी भर सहना था ......
जाते समे सब चाहने वालो को अलविदा कहना था .....
कर लिया था दिल पत्थर मैंने भी अपना ....
हर लम्हे को बना दिया था एक हसीं सपना .....
जो इन आखों में अब पलना था .....
समेत के खवाबो को चंलना था ....उनके शहर को अलविदा करना था ....
काश इक बार तो रुकने को कह जाते .....या फिर इस मुसाफिर को लौट के आने को कह jatऐ ...
बेजुबान फ़रियाद लगाये बेठे थे ....काश जुबान वाले आप भी उनमे शामिल हो जाते ....
दीवानगी हमारी थी ....अब इक परवाने की तरह इस शमा में जलना था ....
समेत के खवाबो को चलना था ....उनके शहर को अलविदा करना था ....
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